Friday, 31 July 2009

Chaturmas - mahatmya

प्रतिदिन एक समय भोजन करने वाला पुरुष अग्निष्टोम यज्ञ के फल का भागी होता है | पंचगव्य सेवन करने वाले मनुष्य को चान्द्रायण व्रत का फल मिलता है |यदि धीर पुरुष चतुर्मास में नित्य परिमित अन्न का भोजन करता है तो सब पातकों का नाश हो जाता है और वह वैकुंठ धाम को पाता है |

पुत्रदा एकादशी 01/08/09

पुत्रदा एकादशी



युधिष्ठिर ने पूछा : मधुसूदन ! श्रावण के शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है ? कृपया मेरे सामने उसका वर्णन कीजिये ।



भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! प्राचीन काल की बात है । द्वापर युग के प्रारम्भ का समय था । माहिष्मतीपुर में राजा महीजित अपने राज्य का पालन करते थे किन्तु उन्हें कोई पुत्र नहीं था, इसलिए वह राज्य उन्हें सुखदायक नहीं प्रतीत होता था । अपनी अवस्था अधिक देख राजा को बड़ी चिन्ता हुई । उन्होंने प्रजावर्ग में बैठकर इस प्रकार कहा: ‘प्रजाजनो ! इस जन्म में मुझसे कोई पातक नहीं हुआ है । मैंने अपने खजाने में अन्याय से कमाया हुआ धन नहीं जमा किया है । ब्राह्मणों और देवताओं का धन भी मैंने कभी नहीं लिया है । पुत्रवत् प्रजा का पालन किया है । धर्म से पृथ्वी पर अधिकार जमाया है । दुष्टों को, चाहे वे बन्धु और पुत्रों के समान ही क्यों न रहे हों, दण्ड दिया है । शिष्ट पुरुषों का सदा सम्मान किया है और किसीको द्वेष का पात्र नहीं समझा है । फिर क्या कारण है, जो मेरे घर में आज तक पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ? आप लोग इसका विचार करें ।’



राजा के ये वचन सुनकर प्रजा और पुरोहितों के साथ ब्राह्मणों ने उनके हित का विचार करके गहन वन में प्रवेश किया । राजा का कल्याण चाहनेवाले वे सभी लोग इधर उधर घूमकर ॠषिसेवित आश्रमों की तलाश करने लगे । इतने में उन्हें मुनिश्रेष्ठ लोमशजी के दर्शन हुए ।



लोमशजी धर्म के त्तत्त्वज्ञ, सम्पूर्ण शास्त्रों के विशिष्ट विद्वान, दीर्घायु और महात्मा हैं । उनका शरीर लोम से भरा हुआ है । वे ब्रह्माजी के समान तेजस्वी हैं । एक एक कल्प बीतने पर उनके शरीर का एक एक लोम विशीर्ण होता है, टूटकर गिरता है, इसीलिए उनका नाम लोमश हुआ है । वे महामुनि तीनों कालों की बातें जानते हैं ।



उन्हें देखकर सब लोगों को बड़ा हर्ष हुआ । लोगों को अपने निकट आया देख लोमशजी ने पूछा : ‘तुम सब लोग किसलिए यहाँ आये हो? अपने आगमन का कारण बताओ । तुम लोगों के लिए जो हितकर कार्य होगा, उसे मैं अवश्य करुँगा ।’



प्रजाजनों ने कहा : ब्रह्मन् ! इस समय महीजित नामवाले जो राजा हैं, उन्हें कोई पुत्र नहीं है । हम लोग उन्हींकी प्रजा हैं, जिनका उन्होंने पुत्र की भाँति पालन किया है । उन्हें पुत्रहीन देख, उनके दु:ख से दु:खित हो हम तपस्या करने का दृढ़ निश्चय करके यहाँ आये है । द्विजोत्तम ! राजा के भाग्य से इस समय हमें आपका दर्शन मिल गया है । महापुरुषों के दर्शन से ही मनुष्यों के सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं । मुने ! अब हमें उस उपाय का उपदेश कीजिये, जिससे राजा को पुत्र की प्राप्ति हो ।



उनकी बात सुनकर महर्षि लोमश दो घड़ी के लिए ध्यानमग्न हो गये । तत्पश्चात् राजा के प्राचीन जन्म का वृत्तान्त जानकर उन्होंने कहा : ‘प्रजावृन्द ! सुनो । राजा महीजित पूर्वजन्म में मनुष्यों को चूसनेवाला धनहीन वैश्य था । वह वैश्य गाँव-गाँव घूमकर व्यापार किया करता था । एक दिन ज्येष्ठ के शुक्लपक्ष में दशमी तिथि को, जब दोपहर का सूर्य तप रहा था, वह किसी गाँव की सीमा में एक जलाशय पर पहुँचा । पानी से भरी हुई बावली देखकर वैश्य ने वहाँ जल पीने का विचार किया । इतने में वहाँ अपने बछड़े के साथ एक गौ भी आ पहुँची । वह प्यास से व्याकुल और ताप से पीड़ित थी, अत: बावली में जाकर जल पीने लगी । वैश्य ने पानी पीती हुई गाय को हाँककर दूर हटा दिया और स्वयं पानी पीने लगा । उसी पापकर्म के कारण राजा इस समय पुत्रहीन हुए हैं । किसी जन्म के पुण्य से इन्हें निष्कण्टक राज्य की प्राप्ति हुई है ।’



प्रजाजनों ने कहा : मुने ! पुराणों में उल्लेख है कि प्रायश्चितरुप पुण्य से पाप नष्ट होते हैं, अत: ऐसे पुण्यकर्म का उपदेश कीजिये, जिससे उस पाप का नाश हो जाय ।



लोमशजी बोले : प्रजाजनो ! श्रावण मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी होती है, वह ‘पुत्रदा’ के नाम से विख्यात है । वह मनोवांछित फल प्रदान करनेवाली है । तुम लोग उसीका व्रत करो ।



यह सुनकर प्रजाजनों ने मुनि को नमस्कार किया और नगर में आकर विधिपूर्वक ‘पुत्रदा एकादशी’ के व्रत का अनुष्ठान किया । उन्होंने विधिपूर्वक जागरण भी किया और उसका निर्मल पुण्य राजा को अर्पण कर दिया । तत्पश्चात् रानी ने गर्भधारण किया और प्रसव का समय आने पर बलवान पुत्र को जन्म दिया ।



इसका माहात्म्य सुनकर मनुष्य पापों से मुक्त हो जाता है तथा इहलोक में सुख पाकर परलोक में स्वर्गीय गति को प्राप्त होता है

Thursday, 18 June 2009

HARIDWAR SATSANG - PUJYA GURUDEV

शिवानंद सरस्वती के सत्संग से
किसी भी प्रकार के ज्ञान के उदभव के लिए बाह्या साधन क्रिया और कर्म की आवश्यकता है. आता साधक मे ज्ञान का अवीरभाव करने के लिए गुरु की आवश्यकता होती हाँ परस्पर प्रभावित करने की सार्वत्रिक प्रक्रिया के लिए एक दूसरे के पूरक दो भाग मे गुरु शिष्या हैं. शिष्य मे ज्ञान का उदय शिष्य की पात्रता और गुरु की चेतना शक्ति पर अवलम्बित हैं
शिष्य की मानसिक स्थिति अगर गुरु की चेतना के आगमन के अनुरूप पर्याप्त मात्रा मे तैयार नही होती तो ज्ञान का आदान प्रदान नही हो सकता .
ईस ब्राम्न्ड मे कोई भी घटना घटित होने के लिए यह पूर्व शर्त है . जब तक सार्वत्रिक प्रक्रिया के एक दूसरे के पूरक ऐसे दो भाग या दो अवस्था ए इकठ्ठि नही होती तब तक कोई भी घटना घटित नही होती .

आतमनिरीक्षण के द्वारा ज्ञान का उदय स्वत : हो सकता है और इसलिए बाह्य गुरु की कोई आवश्यकता बिल्कुल नही है. यह मत सर्व स्वीकृत नही बन सकता . इतिहास बताता है की ज्ञान की हर एक शाखा मे शिक्षण की प्रक्रिया के लए शिक्षक की सघन प्रवृति अत्यंत आवश्यक है .यदि किसी व्यक्ति मे बाह्य सहायता के सिवाय सहज वृति से ज्ञान का उदय संभव होता तो स्कूल कॉलेज एवम् यूनिवर्सिटी की कोई आवश्यकता नही होती.
( हम साधना ठीक से करते है की नही उसका थर्मो मीटर है की सदगुरु की और जाने की भावना होती है की नही . अगर साधना ठीक नही है तो वह सदगुरु से दूर ले जाएगी )
जो लोग शिक्षक एवम् गुरु की सहाय ता के बीना ही स्वतन्त्र रीति से अगर कोई व्यक्ति कुशल बन सकता है ऐसे ग़लत मार्ग पर ले जाने वाले मत का प्रसार प्रचार करते है वे लोग भी तो स्वयम् किसी शिक्षक के द्वारा ही तो शिक्षित होते है . ज्ञान के उदय के लए शिष्य या विधयर्थी के प्रयास का महत्व कम नही है शिक्षक के उपदेश जितना ही उतना ही महत्व है .इस ब्रह्मांड मे कर्ता एवम् कर्म सत्य के एक ही स्तर पर स्थित है क्योकि कर्मके सिवाय उनके बीच पारस्परिक आदान प्रदान संभव नही हो सकता अलग स्तर पर स्थित चेतना शक्ति के बीच प्रति क्रिया नही हो सकती हालाकी शिष्य जिस स्तर पर होता है उस स्तर को माध्यम बनाकर गुरु अपनी उच्च चेतना को शिष्य पर केंद्रित कर सकते है इस से शिष्य के मन का योग्य रूपांतर हो सकता है. गुरु की चेतना के इस कार्य को शक्ति शांचार कहा जाता है . इस प्रक्रिया मे गुरु की शक्ति शिष्य मे प्रविष्ट होती है ऐसे उदाहरण भी मिलते है की शिष्य के बदले मे गुरु ने स्वयम् ही साधना की हो और उच्च चेतना की प्रत्यक्ष सहायता के द्वारा शिष्य के मन की शुध्धि करके उसका उर्ध्वी कारण किया हो . दोष द्रशटी वाले लोग काहेते है अंतर आत्मा की सलाह ले कर सत्या असत्य - अच्छा बुरा हम पहेचान सकते है अथ : बाह्य गुरु की आवश्यकता नही है. किंतु यह वात ध्यान मे रहे के जब तक साधक रूचि इच्छा वासना रहीतता के शिखर पर नही पहोच ता तब तक योग्य निर्णय करने मे अंतर आत्मा उसे सहाय रूप नही बन पाती .
पाशवि अंतर आत्मा किसी व्यक्ति को अध्यात्मिक ज्ञान नही दे शकती मनुष्य के विवेक और बौध्धिक मत पर उसके अव्यक्त और अग्यात मन का गहारा प्रभाव पड़ता है प्राय: सभी मनुष्यो की बुध्धि शुषुप्त इच्छा ओ तथा वासना ओ का एक साधन बनजाति है .
मनुष्य की आंटा आत्मा उसके अभिगम , जुकाव , रूचि , आदत , वृतीया , और अपने समाज के अनुरूप बाधीत ही रहेती है , आफ्रिका के जंगली आदिवासी - शुषिक्षित यूरोपियन - और सदाचार की नीव पर सुविकसित बने हुए योगी की अंतर आत्मा की आवाज़े भिन्न भिन्न होती है , बचपन से अलग अलग ढंग से बड़े हू ए दश अलग अलग व्यक्ति ओ की दश अलग अलग अंतर आत्मा ए होती है .
वीरोचन ने स्वयम् ही मनन किया अपनी अंतर आत्मा का मार्ग दर्शन लिया एवम् मैं कोंनहू इस समस्या का आत्म निरीक्षण कीया और निश्चय किया की यह देह ही मुल भूत तत्व है .

( तृणम कृतवा घृतम पिबेत :
या पर्यंत जिवेत सुखेन जिवेत !! )
उधारी करके भी घी पिओ जब तक जिओ सुख से जिओ !!

( कॉप करे करतार तब देवे धन धान वैभव जॅग मान और व्यवहार !! )

भगवान श्री कृष्ण कहेते है की वो निरंतर मेरे ध्यान आदि मे लगे हुए और प्रेम पूर्वक भजने वाले भक्तो को मे वह तत्व ज्ञान युक्त योग देता हू जिससे वे मुजको ही प्राप्त होते है .( सतत युक्ताना म ) अर्थ ऐसा है की आप सतत माला नही घुमाए या मंदिर मे बैठे रहो - हा माला के समय माला घूमाओ - मंदिर के समय मंदिर मे जाओ , लेकिन फीरभि इन सब के शक्षी होते हुए इस जगत् के मिथयत्व को देखते देखते जिससे सब हो रहा है उसमे सतत गोता लगाओ . रटण करने वाले तो रटण करते करते रटण रूप हो जाते है .

रटण मे ही रुकना नही है उससे आगे आत्म सत्ता को समजना है उससे प्रीति और शक्ति पाना है ..

तत्परता मुख्य चीज़ है ईश्वर प्राप्ति मे

ॐ श्री परमात्मने नम:

तत्परता मुख्य चीज़ है ईश्वर प्राप्ति मे , गुरु तत्व के भक्त नही होते उनको ईश्वर प्राप्ति नही होती , सुविधा के भक्त होते है वो रह जाते है. हा गदधर थे भक्त तो उनके सामने देवी प्रगट हो गयी , पक्का पुजारी होना चाहिए . एसे पक्का गुरु भक्त हो तो गुरु तत्व प्रगट हो जाता है, देर कहा हैं, देर हे स्न्सार की अहँता और ममता को पोषने मेी महत्व भुध्दि है और ईश्वर मे गौण बुध्धि है. ईश्वर एक फेशन हो गया है. ये करू वो करू ये पालु वो पालु मे राहु मेरा रहे और ईश्वर मिल जाए. एसे मूर्ख लोग हैं. वैसे भई बुध्दि मारी गयी है कालजुग मे तो , अपना हित किसमे हैं वो पता ही नही चलता .एसा निर्णय लेते हैं,
एक बार लक्ष्मण जी ने राम जी ने को प्रभु कुटिया कहा बनाए 1 पहेर 2 पहेर 3 पहेर गये ना लक्ष्मण जी दिखे ना लक्ष्मण जी की कुटिया दिखी . फिर सीता माता ने देखा की लक्ष्मण जी दूर जाडी ओ मे पड़े पड़े रो रहे है . देवर रो रहे है तो सीता जी तो माता समान ही थी ना समान क्या माता हितो थी . क्यू बेटे रोते हो क्या हुआ . लक्ष्मण जी ने कहा मे अनाथ हो गया मा मे अनाथ हो गया . क्यू कैसे अनाथ हो गये . लक्ष्मण जी ने कहा प्रभु ने मेरा त्याग कर दिया . कैसे त्याग किया , वो रोते ही जा रहे हे - माता जी पूछती जाती हे अरे बोलो तोसही क्या हुआ क्यो त्याग कर दिया . लक्ष्मण जी ने कहा मेरे के अपने मन के हवाले कर दिया. जो तुमको ठीक लगे अच्छा लगे वाहा बनाओ . मे अनाता हो गया मा मे अनाथ हो गया जन्मो से मेरा मान मूज़े भटकता फिरता है फिर मेरे को इसी के हवाले कर दिया .के जहा तुमको ठीक लगे वाहा कुटिया बनओ. मेरे से कोई अपराध हो गया हैं. मूज़े आदेश नही दिया और मेरे मनके हवाले मूज़े कर दिया .ये जा के माता ने रामजी केओ कहा . फिर रामजी ने आके कहा की यहा आओ यहा देखो ये पूर्वा दिशा हैं ढलान के पास एधर उधर कुछ यहा वाहा करके ऐसे बनाओ करके आदेश दे दिया .की यह वास्तु शस्त्र के अनुसार बढ़ीया है. और आनंद दाई होगा .ऐसा करके लक्ष्मंका दिल रख लिया और लक्ष्मण भी सावधान हो गया मन मुख होने से .

नही के आज कल के लोगो की तरह अपनी मंकी गुरु और ईश्वर से करवाते है फिर आपस मे लड़ते है जघड़ते है एक दूसरा अपने अपने मान की करवने मे लगे रहते है . इस मे गुरु की होली हो जाती है गुरु मथानी की तरह फिरते रहेते है .धान्या है ऐसे गुरु को की ऐसा मथानी की तरह विलोटे हुए भी अपना सेवा कार्य को नही छोड़ते. और समाज के लए मकखन निकल ते रहेते हैं.

जो जागत सो पावत है

जो जागत सो पावत है पुस्तक से . . .
अमी सांगतो वेद सांगते |
"हम जो बोलते है वो वेद बोलते है"

ब्रह्मज्ञान हो जाने के बाद ब्रह्मज्ञानी शास्त्रो का आधार लेकर बोले या ऐसे ही बोले, उनकी वाणी वेदवाणी हो जाती है. उनके लिए हर जल गंगाजल हो जाता है. वह जिस भूमि पर पैर रखते है वो भूमि काशी बन जाती है. वह जिस वास्तु को स्पर्श करते है वो प्रशाद बन जाता है. वे जो अक्षर बोलते है वह मन्त्र बन जाता है. अगर वे महापुरुष मात्र "ढ़े... ढ़े... करो" वैसा कह दे और उसे श्रद्धा के साथ "ढ़े... ढ़े..." करने वाले को भी लाभ होता है.
अगर श्रद्धालु सोचे की ये "ढ़े... ढ़े..." कोई मन्त्र नही है परंतु ये महापुरुषने कहा है और मैं इसका पक्के विश्वाश के साथ इस मन्त्र का जप कुरुँगा - तो उसे लाभ होता ही है.
|| मंत्रमुलन गुरोर्वाक्यम ||
जिसके वचन मन्त्रके मूल बन जाते है उसको संसार की किसीभी वास्तु की ज़रूरत नही पड़ती. उनके लिए कोईभी वास्तु अप्राप्य नही.
..हरी ओम..

Saturday, 13 June 2009

ISHAVAR PRAPTI NA MAN NA VIGHNO

ઇશ્વર પ્રાપ્તી માં મન ના દોષ કે થતા વિઘનો

૧ વ્યધી : કોઇ જાત નો રોગ કે દુખાવો જે મન ને વિચલિત કરે જેમ કે . પગ , માથુ વગેરે દુખવા જે જપ ધ્યાન માં વિઘન રુપ છે .
૨ પ્રમાદ : આળસ એ પોતે જ મોટુ વિઘન છે જે લોકો જપ ધ્યાન કરવા મા આળસ પ્રમાદ કરે તે ઇશ્વર પ્રાપ્તિ કરી શક્તા નથી.
૩ શંશય : ગુરુ , ગુરુ મંત્ર , ઇશ્ટ . કે ઇશ્વર મ શં્શય કરે તે ઇશ્વર પ્રાપ્તિ કરી શક્તા નથી.
૪ ભ્રાંતિ દર્શન : જે લોકો સવપ્ન કે બિજિ મન નિ ભ્રાં્તિ માં રાચે તે લોકો ઇશ્વર પ્રાપ્તિ કરી શક્તા નથી.
૫ ભૂત / ભવિશ્ય નું ચિં્તન : જે લોકો ભુત ભવિશ્ય નુ ચિંતન કર્યા કરે પેલા આમ હતુ હવે આમ છે પેલા આમ કર્યુ હોત તો આમ થાત ને ભવિશય નિ ચિનં્તા ઓ કરતા લોકો ઇશ્વર પ્રાપ્તિ કરી શક્તા નથી.
૬ સ્તબ્ધિ ભાવ : સ્તબ્ધ તા જેમ કે મન સુન્ન થય જાય વિચાર વિહિન તા આવિ જાય જપ કે ધ્યાન પન કરે નહિ અને બસ બેઠા રહે . કોય ને એમ લાગે કે સમધિ છે પન એવુ કય હોય નહિ તેવા ભાવ ને સ્તબ્ધિ ભાવ કહે છે .
૭ દૌ ર્મનસ્યતા : ભવિશ્ય બનાવવાનિ વાત મન મા લાવે વર્તમાન મા જપ ધ્યાન કરવા કરતા ભવિશય નિ ચિંતા કરનાર ઇશ્વર પ્રાપ્તિ કરી શક્તા નથી.
૮ અગ્નેજય્ત્વ : મન નિ એકગ્રતા ના હોવિ / એકાગ્રત ગુમાવિ દેવિ જેના વગર ધ્યાન શક્ય નથી.
૯ લયલીન તા : મન લય લીન થ ઇ જવુ

આ વિઘનો ઇશ્વર પ્રાપ્તિ મ સૌથી મોટા વિઘનો છે પરં્તુ આ વિઘનો આવે જ નહિ તે માટે પુજ્ય ગુરુદેવ આ સાધના બતાવે છે

એક ટક ગુરુ / ઇશ્વર ના ચિત્ર / છબી ને એક ટક જોવુ - સાથે સાથે મુલ બં્ધ અને જિભ તાળવા સાથે ઉપર રાખવી . અને શ્વાસો શ્વસ ને નિહાળવા થિ જનમ જનમ નિ વાસનાઓ નો નાશ થાય છે .અને મન નિ એકગ્રતા સધાય છે .

હરિ દ્વાર - ૧૦ મે - સવારે ૯ કલાકે

Tuesday, 31 March 2009

Important Days to increase Jap Results:

Important Days to increase Jap Results:


Param Pujya SadGurudev advised in Surat Dec’2008 satsang:


If we do Jap on following tithiyon, 1 Mala equalent to 1000 Malas and results will be similar as Jap during Solar Eclipse & Moon Eclipse


1. Somvati Amavasya (Dark Moon) - 26th Jan'09

2.Sunday ( Saptami, 7th Day from Full Moon & Dark Moon)

3. Tuesday (Chaturthi, 4th Day from Full Moon & Dark Moon)

4. Wednesday (Ashtami, 8th Day from Full Moon & Dark Moon)


In tithiyon par jap/dhyan ka fal Grahan ke samay kiye huey jap/dhyan
ke samaan hota hai. Isliye humein in tithiyon par jaada jap karna
chahiye, jis se humein thodey mein hi jaada laabh miley - aisa Pujya
Gurudev ne kaha.


Saturday, 14 March 2009

DADA GURU


Swami Sri Lilashahji Maharaj is the guru of Sant Sri Asaramji Bapu and Sant Sri ManohardasJi Maharaj (Ajmer). His Holiness practiced complete celibacy throughout his life.

Biography

Swami Leelashah was born in Hyderabad, Sind in a small Village Mehrab Chandni of Tanda Baga Taluka, on march 1880. His father's name was Topandas and mother's name was Hemibai. His birth name was Lilaram . At the age of ten, his parents died and he was brought up by Lakhumal . Swamiji was religious right from his childhood . He refused to marry and opted to live like a sant and pray to God. He decided to work for the upliftment of the people living in Laad (south of sindh) for they were illiterate and downtrodden. Lilaram was made president of Bhagat Ratan Darbar , but he left the post in search of truth. He learnt Hindi, studied Religious & Vedic books and lived amongst sants. He became a disciple of Vedic Acharya Sant Shri Keshavaram, who filled in him a light of knowledge and philosophy and named him Leelashah.

Thereafter Swami Leelashah Maharaj travelled in North India and visited Haridwar, Rishikesh, North Kashi , Kashmir, Tibet and the Himalayas. There, he lived in caves, meditated for many years and did bhakti. Swami had started helping people in Sindh and started publishing religious monthly magazine Tatwa Gyan . After Indo-Pak partition he solved the problems of the Sindhi community by going to various places in India. He travelled to Ahmedabad, Alwar, Jaipur, Jodhpur, Agra, Bombay, Baroda, Gandhidham and helped people to establish themselves.

He contributed greatly towards mankind. He also established many schools, dharmshalas, gaushalas, hospitals, vridhshrams, libraries, and satsang halls. By the initiation of swamiji, a religious book was started on Atama Darshan from Ajmer. Swamiji also travelled abroad and conducted satsang lectures and helped people remain healthy through Nature Cure. In the last few years of his lifetime, he propagated against the dowry system and encouraged group marriages. Swamiji never tried to expose himself. He lived simple life. He also did not establish himself as Guru, but helped everyone heartily. Swamiji's capital was religious book and a bed of Tat. He was a Brahma Gyani, a great sant. On 4 November 1973, he passed away at the age of 93 years. Swamiji's disciples are spread throughout the country. Sant Leelashah's Samadhi is situated at Adipur.

He believed in and practised simple living and high thinking. Inspired by his noble and benevolent thoughts, through his divine blessings, Vedant ashrams, dharamshalas, gaushalas, pathshalas, satsang sabhas, hospitals, libraries, shelter homes for widows and elders are established all over the country.

He was endowed with a lustrous personality. He was a great philosopher, social reformer and a scholar of Vedanta. He was the editor of a great philosophical work named "Atmadarshan".

Disciples

Sant Sri Asaramji Bapu is among the many disciples of Swami Sri Lilashahji Maharaj. He was inspired to go to the ashram of the Great Guru at Nainital, Swami Sri Lilashahji Maharaj. He had to wait for 40 days in the Ashram to get the glimpse of Gurudev.

A few words spoken by Sant Sri Asaramji Bapu with reference to Swami Sri Lilashahji Maharaj:

I met Pujya SadGurudev (Swami Shri Leela Shahji Maharaj) in the forests of Nainital for the first time.

I got the wonderful opportunity to stay near the lotus feet of Pujya Gurudev for 30 days. Later on when I used to visit Guruji on various occasions, I could see & experience the divinity of his attitude, his supreme knowledge, his magnanamity & his subtle vision ..

I could see his eyes showering divine love always. I could see the divine qualities like never-ending patience, cheerfulness, infinite capabilities, strong determination & affection for all in his day to day dealings.

Even now when I'm reminded of those wonderful days spent with Guruji, my heart is overwhelmed. One can experience divine bliss only at the lotus feet of Guruji! I'm reminded of the pure love of SadGurudev again & again. SadGurudev opens the door to salvation...

LIFE SCATCH OF PUJYA BAPU



Asaram Bapu (born April 17, 1941) is a Hindu spiritual guru from India, who is a self-realized saint of India and called as Sant Sri Asaramji Bapu (Hindi: संत श्री आसारामजी बापू),(Sindhi: سنت شري آسارام باپو) or Bapuji.

Travelling extensively in India and abroad, he preaches the message of Vedanta, Yoga, divine love, Bhakti (devotion), and Mukti (salvation) through his teachings and Satsangs. In 1993, at the Parliament of the World's Religions, Bapu was elected as a committee member of the Assembly of Global Religions.

Bapu preaches the existence of One Supreme Conscious in every human being; be it Hindu, Muslim, Christian, Sikh or anyone else. Bapu's satsang represents a confluence of Bhakti Yoga, Jnana Yoga, and Karma Yoga.



Biography

Birth

Asaram Bapu was born to father Thaumal Sirumalani and mother Menhgiba. He was born in Berani village of the Nawab district in Sindh (Un-Partitioned India) on the sixth day of Chaitra month (Hindu Calendar), April 17, 1941 (Gregorian calendar), as Aasumal.His father was a wealthy businessman named Thaumal Sirumalani and his mother was Mehngeeba. He was named Asumal.

Aasumal was the fourth child in the family. First brother to the three sisters.

Childhood

As a child, Asumal was quite inclined towards religious epics. Asumal would listen to stories of Ramayana, Bhagwavata and other scriptures from his mother. The first seed of spiritual life was sown in his life during this period.

Due to the unfortunate partition of India the whole family had to migrate from Sindh in Pakistan to Maninagar near Ahmedabad, in Gujarat.

Asumal started going to school again in Maninagar. Six year old Asumal was brilliant in studies. The teachers used to praise Asumal for being cheerful, pure-hearted and intelligent. Teachers used to call him Hansmukh bhai (the one who keeps smiling always.

Mother Mehgiba developed Asumal's interest in dhyaan-bhajan (meditation and prayers) right from his early childhood.

When Asumal saw that school education could be used merely for the purpose of winning bread and fulfilling worldly enjoyment, he became disenchanted to education. Nevertheless he continued going to school. Whenever there was any time to spare, he would go to a lonely place and meditate.

Youth and spiritual quest

At a very young age Asumal lost his father and the family business started dwindling. Asumal had to discontinue his education and shoulder on the family's responsibility along with his elder brother. Asumal's presence in the business improved the profits, but his mind was far away from the business. He always yearned for spiritual knowledge.

After his father's demise Asumal's discrimination towards life intensified. He increased the time for mediation and realized that God alone is one reality and essence of life. His concentration increased greatly due to regular, pure meditation. Asumal's growing detachment to the world worried his family and they decided to get him married. Asumal's family got him engaged.

Marriage

Aasumal kept postponing marriage for two and half years. Eventually, his family fixed a date of his marriage but he ran away from his home eight days before the day of marriage. His family started searching for him and found him in Ashok Ashram in Bharuch and took him back to home. After reaching home Aasumal was married to Lakshmi Devi.

Aasumal told his wife that his ultimate goal is to self realise. He made her understand that he'll come back to home for a normal life after getting the state of self realisation.

Journey to spirituality

Asumal then went to Vrindavan, the land of Lord Krishna. Here he was inspired to goto the ashram of the Guru, Swami Sri Lilashahji Maharaj. He had to wait for 40 days in the Ashram to get the glimpse of the Guru. There he stayed and served his Guru with devotion. He waged war with so many troubles. He used to take just boiled Mung as food, sleep in a small 4.5 foot room. Lilashahji made Asumal go through several hardships for another 30 days and then finally Asumal was blessed. Swami Sri Lilashahji Maharaj asked him to go back to home and continue his spiritual practices at home.

While coming back to his home, he left the train and went to Moti Koral (A place in Gujarat). His mind was supposedly attuned to only self-realization. No one can stop a man who is on his way to Paramapada (Ultimate Realization). He started doing dhyaan at the bank or river Narmada. A local saint Shri Lalji Maharaj got impressed by Asumal's intense spiritual practices. Lalji Maharaj made arrangements for Asumal to stay in Datt Kutir of Ram Niwas (Lalji Maharaj's Ashram). Asumal started the 40 day Anushthan here.

When Asumal's wife and mother came to know that he was staying at Moti Koral they visited him. They requested him to come back. But Asumal told them without completing the Anushthan he cannot come. He successfully completed the Anushthan. The whole village and Lalji Maharaj himself came to the railway station to see them off to Ahmedabad. As soon as the train started moving from Miyagaun junction, Asumal jumped out and boarded a train towards Bombay to meet Guru Swami Sri Lilashahji Maharaj.

Self-realisation

Swami Sri Lilashahji Maharaj instructed Asaram to serve the humanity by staying as a householder. After Self-Realization Asaram Bapu stayed in solitude for seven years. Asaram Bapu used to give religious discourse to all those who came to meet and see Bapu. Bapu spent His solitude in various places like Disa, Naareshwar Dhaam, the Himalayas, Mount Abu, and so on.

Life as a householder

Asaram Bapu met Swami Sri Lilashahji Maharaj in Haridwar in Vikram Samvat 2028 by the commands of Guru in order to provide a good example to common householders, Bapu entered the life of a householder. It was the day of Guru Punam in Vikram Samvat 2028 when Asaram Bapu reached Ahmedabad after staying in solitude for seven years.

Asaram chose a peaceful place in the Motera village on the banks of Sabarmati river. Later on some of the devotees constructed a small room for him which is known as "Moksha Kutir". Slowly, the number of devotees coming to Motera kept on increasing and in a very short time the place became a great spiritual centre. Today Motera is the main spiritual centre for the devotees coming to Sant Sri Asaramji Ashram.