शिवानंद सरस्वती के सत्संग से
किसी भी प्रकार के ज्ञान के उदभव के लिए बाह्या साधन क्रिया और कर्म की आवश्यकता है. आता साधक मे ज्ञान का अवीरभाव करने के लिए गुरु की आवश्यकता होती हाँ परस्पर प्रभावित करने की सार्वत्रिक प्रक्रिया के लिए एक दूसरे के पूरक दो भाग मे गुरु शिष्या हैं. शिष्य मे ज्ञान का उदय शिष्य की पात्रता और गुरु की चेतना शक्ति पर अवलम्बित हैं
शिष्य की मानसिक स्थिति अगर गुरु की चेतना के आगमन के अनुरूप पर्याप्त मात्रा मे तैयार नही होती तो ज्ञान का आदान प्रदान नही हो सकता .
ईस ब्राम्न्ड मे कोई भी घटना घटित होने के लिए यह पूर्व शर्त है . जब तक सार्वत्रिक प्रक्रिया के एक दूसरे के पूरक ऐसे दो भाग या दो अवस्था ए इकठ्ठि नही होती तब तक कोई भी घटना घटित नही होती .
आतमनिरीक्षण के द्वारा ज्ञान का उदय स्वत : हो सकता है और इसलिए बाह्य गुरु की कोई आवश्यकता बिल्कुल नही है. यह मत सर्व स्वीकृत नही बन सकता . इतिहास बताता है की ज्ञान की हर एक शाखा मे शिक्षण की प्रक्रिया के लए शिक्षक की सघन प्रवृति अत्यंत आवश्यक है .यदि किसी व्यक्ति मे बाह्य सहायता के सिवाय सहज वृति से ज्ञान का उदय संभव होता तो स्कूल कॉलेज एवम् यूनिवर्सिटी की कोई आवश्यकता नही होती.
( हम साधना ठीक से करते है की नही उसका थर्मो मीटर है की सदगुरु की और जाने की भावना होती है की नही . अगर साधना ठीक नही है तो वह सदगुरु से दूर ले जाएगी )
जो लोग शिक्षक एवम् गुरु की सहाय ता के बीना ही स्वतन्त्र रीति से अगर कोई व्यक्ति कुशल बन सकता है ऐसे ग़लत मार्ग पर ले जाने वाले मत का प्रसार प्रचार करते है वे लोग भी तो स्वयम् किसी शिक्षक के द्वारा ही तो शिक्षित होते है . ज्ञान के उदय के लए शिष्य या विधयर्थी के प्रयास का महत्व कम नही है शिक्षक के उपदेश जितना ही उतना ही महत्व है .इस ब्रह्मांड मे कर्ता एवम् कर्म सत्य के एक ही स्तर पर स्थित है क्योकि कर्मके सिवाय उनके बीच पारस्परिक आदान प्रदान संभव नही हो सकता अलग स्तर पर स्थित चेतना शक्ति के बीच प्रति क्रिया नही हो सकती हालाकी शिष्य जिस स्तर पर होता है उस स्तर को माध्यम बनाकर गुरु अपनी उच्च चेतना को शिष्य पर केंद्रित कर सकते है इस से शिष्य के मन का योग्य रूपांतर हो सकता है. गुरु की चेतना के इस कार्य को शक्ति शांचार कहा जाता है . इस प्रक्रिया मे गुरु की शक्ति शिष्य मे प्रविष्ट होती है ऐसे उदाहरण भी मिलते है की शिष्य के बदले मे गुरु ने स्वयम् ही साधना की हो और उच्च चेतना की प्रत्यक्ष सहायता के द्वारा शिष्य के मन की शुध्धि करके उसका उर्ध्वी कारण किया हो . दोष द्रशटी वाले लोग काहेते है अंतर आत्मा की सलाह ले कर सत्या असत्य - अच्छा बुरा हम पहेचान सकते है अथ : बाह्य गुरु की आवश्यकता नही है. किंतु यह वात ध्यान मे रहे के जब तक साधक रूचि इच्छा वासना रहीतता के शिखर पर नही पहोच ता तब तक योग्य निर्णय करने मे अंतर आत्मा उसे सहाय रूप नही बन पाती .
पाशवि अंतर आत्मा किसी व्यक्ति को अध्यात्मिक ज्ञान नही दे शकती मनुष्य के विवेक और बौध्धिक मत पर उसके अव्यक्त और अग्यात मन का गहारा प्रभाव पड़ता है प्राय: सभी मनुष्यो की बुध्धि शुषुप्त इच्छा ओ तथा वासना ओ का एक साधन बनजाति है .
मनुष्य की आंटा आत्मा उसके अभिगम , जुकाव , रूचि , आदत , वृतीया , और अपने समाज के अनुरूप बाधीत ही रहेती है , आफ्रिका के जंगली आदिवासी - शुषिक्षित यूरोपियन - और सदाचार की नीव पर सुविकसित बने हुए योगी की अंतर आत्मा की आवाज़े भिन्न भिन्न होती है , बचपन से अलग अलग ढंग से बड़े हू ए दश अलग अलग व्यक्ति ओ की दश अलग अलग अंतर आत्मा ए होती है .
वीरोचन ने स्वयम् ही मनन किया अपनी अंतर आत्मा का मार्ग दर्शन लिया एवम् मैं कोंनहू इस समस्या का आत्म निरीक्षण कीया और निश्चय किया की यह देह ही मुल भूत तत्व है .
( तृणम कृतवा घृतम पिबेत :
या पर्यंत जिवेत सुखेन जिवेत !! )
उधारी करके भी घी पिओ जब तक जिओ सुख से जिओ !!
( कॉप करे करतार तब देवे धन धान वैभव जॅग मान और व्यवहार !! )
भगवान श्री कृष्ण कहेते है की वो निरंतर मेरे ध्यान आदि मे लगे हुए और प्रेम पूर्वक भजने वाले भक्तो को मे वह तत्व ज्ञान युक्त योग देता हू जिससे वे मुजको ही प्राप्त होते है .( सतत युक्ताना म ) अर्थ ऐसा है की आप सतत माला नही घुमाए या मंदिर मे बैठे रहो - हा माला के समय माला घूमाओ - मंदिर के समय मंदिर मे जाओ , लेकिन फीरभि इन सब के शक्षी होते हुए इस जगत् के मिथयत्व को देखते देखते जिससे सब हो रहा है उसमे सतत गोता लगाओ . रटण करने वाले तो रटण करते करते रटण रूप हो जाते है .
रटण मे ही रुकना नही है उससे आगे आत्म सत्ता को समजना है उससे प्रीति और शक्ति पाना है ..
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