Thursday 18 June 2009

HARIDWAR SATSANG - PUJYA GURUDEV

शिवानंद सरस्वती के सत्संग से
किसी भी प्रकार के ज्ञान के उदभव के लिए बाह्या साधन क्रिया और कर्म की आवश्यकता है. आता साधक मे ज्ञान का अवीरभाव करने के लिए गुरु की आवश्यकता होती हाँ परस्पर प्रभावित करने की सार्वत्रिक प्रक्रिया के लिए एक दूसरे के पूरक दो भाग मे गुरु शिष्या हैं. शिष्य मे ज्ञान का उदय शिष्य की पात्रता और गुरु की चेतना शक्ति पर अवलम्बित हैं
शिष्य की मानसिक स्थिति अगर गुरु की चेतना के आगमन के अनुरूप पर्याप्त मात्रा मे तैयार नही होती तो ज्ञान का आदान प्रदान नही हो सकता .
ईस ब्राम्न्ड मे कोई भी घटना घटित होने के लिए यह पूर्व शर्त है . जब तक सार्वत्रिक प्रक्रिया के एक दूसरे के पूरक ऐसे दो भाग या दो अवस्था ए इकठ्ठि नही होती तब तक कोई भी घटना घटित नही होती .

आतमनिरीक्षण के द्वारा ज्ञान का उदय स्वत : हो सकता है और इसलिए बाह्य गुरु की कोई आवश्यकता बिल्कुल नही है. यह मत सर्व स्वीकृत नही बन सकता . इतिहास बताता है की ज्ञान की हर एक शाखा मे शिक्षण की प्रक्रिया के लए शिक्षक की सघन प्रवृति अत्यंत आवश्यक है .यदि किसी व्यक्ति मे बाह्य सहायता के सिवाय सहज वृति से ज्ञान का उदय संभव होता तो स्कूल कॉलेज एवम् यूनिवर्सिटी की कोई आवश्यकता नही होती.
( हम साधना ठीक से करते है की नही उसका थर्मो मीटर है की सदगुरु की और जाने की भावना होती है की नही . अगर साधना ठीक नही है तो वह सदगुरु से दूर ले जाएगी )
जो लोग शिक्षक एवम् गुरु की सहाय ता के बीना ही स्वतन्त्र रीति से अगर कोई व्यक्ति कुशल बन सकता है ऐसे ग़लत मार्ग पर ले जाने वाले मत का प्रसार प्रचार करते है वे लोग भी तो स्वयम् किसी शिक्षक के द्वारा ही तो शिक्षित होते है . ज्ञान के उदय के लए शिष्य या विधयर्थी के प्रयास का महत्व कम नही है शिक्षक के उपदेश जितना ही उतना ही महत्व है .इस ब्रह्मांड मे कर्ता एवम् कर्म सत्य के एक ही स्तर पर स्थित है क्योकि कर्मके सिवाय उनके बीच पारस्परिक आदान प्रदान संभव नही हो सकता अलग स्तर पर स्थित चेतना शक्ति के बीच प्रति क्रिया नही हो सकती हालाकी शिष्य जिस स्तर पर होता है उस स्तर को माध्यम बनाकर गुरु अपनी उच्च चेतना को शिष्य पर केंद्रित कर सकते है इस से शिष्य के मन का योग्य रूपांतर हो सकता है. गुरु की चेतना के इस कार्य को शक्ति शांचार कहा जाता है . इस प्रक्रिया मे गुरु की शक्ति शिष्य मे प्रविष्ट होती है ऐसे उदाहरण भी मिलते है की शिष्य के बदले मे गुरु ने स्वयम् ही साधना की हो और उच्च चेतना की प्रत्यक्ष सहायता के द्वारा शिष्य के मन की शुध्धि करके उसका उर्ध्वी कारण किया हो . दोष द्रशटी वाले लोग काहेते है अंतर आत्मा की सलाह ले कर सत्या असत्य - अच्छा बुरा हम पहेचान सकते है अथ : बाह्य गुरु की आवश्यकता नही है. किंतु यह वात ध्यान मे रहे के जब तक साधक रूचि इच्छा वासना रहीतता के शिखर पर नही पहोच ता तब तक योग्य निर्णय करने मे अंतर आत्मा उसे सहाय रूप नही बन पाती .
पाशवि अंतर आत्मा किसी व्यक्ति को अध्यात्मिक ज्ञान नही दे शकती मनुष्य के विवेक और बौध्धिक मत पर उसके अव्यक्त और अग्यात मन का गहारा प्रभाव पड़ता है प्राय: सभी मनुष्यो की बुध्धि शुषुप्त इच्छा ओ तथा वासना ओ का एक साधन बनजाति है .
मनुष्य की आंटा आत्मा उसके अभिगम , जुकाव , रूचि , आदत , वृतीया , और अपने समाज के अनुरूप बाधीत ही रहेती है , आफ्रिका के जंगली आदिवासी - शुषिक्षित यूरोपियन - और सदाचार की नीव पर सुविकसित बने हुए योगी की अंतर आत्मा की आवाज़े भिन्न भिन्न होती है , बचपन से अलग अलग ढंग से बड़े हू ए दश अलग अलग व्यक्ति ओ की दश अलग अलग अंतर आत्मा ए होती है .
वीरोचन ने स्वयम् ही मनन किया अपनी अंतर आत्मा का मार्ग दर्शन लिया एवम् मैं कोंनहू इस समस्या का आत्म निरीक्षण कीया और निश्चय किया की यह देह ही मुल भूत तत्व है .

( तृणम कृतवा घृतम पिबेत :
या पर्यंत जिवेत सुखेन जिवेत !! )
उधारी करके भी घी पिओ जब तक जिओ सुख से जिओ !!

( कॉप करे करतार तब देवे धन धान वैभव जॅग मान और व्यवहार !! )

भगवान श्री कृष्ण कहेते है की वो निरंतर मेरे ध्यान आदि मे लगे हुए और प्रेम पूर्वक भजने वाले भक्तो को मे वह तत्व ज्ञान युक्त योग देता हू जिससे वे मुजको ही प्राप्त होते है .( सतत युक्ताना म ) अर्थ ऐसा है की आप सतत माला नही घुमाए या मंदिर मे बैठे रहो - हा माला के समय माला घूमाओ - मंदिर के समय मंदिर मे जाओ , लेकिन फीरभि इन सब के शक्षी होते हुए इस जगत् के मिथयत्व को देखते देखते जिससे सब हो रहा है उसमे सतत गोता लगाओ . रटण करने वाले तो रटण करते करते रटण रूप हो जाते है .

रटण मे ही रुकना नही है उससे आगे आत्म सत्ता को समजना है उससे प्रीति और शक्ति पाना है ..

तत्परता मुख्य चीज़ है ईश्वर प्राप्ति मे

ॐ श्री परमात्मने नम:

तत्परता मुख्य चीज़ है ईश्वर प्राप्ति मे , गुरु तत्व के भक्त नही होते उनको ईश्वर प्राप्ति नही होती , सुविधा के भक्त होते है वो रह जाते है. हा गदधर थे भक्त तो उनके सामने देवी प्रगट हो गयी , पक्का पुजारी होना चाहिए . एसे पक्का गुरु भक्त हो तो गुरु तत्व प्रगट हो जाता है, देर कहा हैं, देर हे स्न्सार की अहँता और ममता को पोषने मेी महत्व भुध्दि है और ईश्वर मे गौण बुध्धि है. ईश्वर एक फेशन हो गया है. ये करू वो करू ये पालु वो पालु मे राहु मेरा रहे और ईश्वर मिल जाए. एसे मूर्ख लोग हैं. वैसे भई बुध्दि मारी गयी है कालजुग मे तो , अपना हित किसमे हैं वो पता ही नही चलता .एसा निर्णय लेते हैं,
एक बार लक्ष्मण जी ने राम जी ने को प्रभु कुटिया कहा बनाए 1 पहेर 2 पहेर 3 पहेर गये ना लक्ष्मण जी दिखे ना लक्ष्मण जी की कुटिया दिखी . फिर सीता माता ने देखा की लक्ष्मण जी दूर जाडी ओ मे पड़े पड़े रो रहे है . देवर रो रहे है तो सीता जी तो माता समान ही थी ना समान क्या माता हितो थी . क्यू बेटे रोते हो क्या हुआ . लक्ष्मण जी ने कहा मे अनाथ हो गया मा मे अनाथ हो गया . क्यू कैसे अनाथ हो गये . लक्ष्मण जी ने कहा प्रभु ने मेरा त्याग कर दिया . कैसे त्याग किया , वो रोते ही जा रहे हे - माता जी पूछती जाती हे अरे बोलो तोसही क्या हुआ क्यो त्याग कर दिया . लक्ष्मण जी ने कहा मेरे के अपने मन के हवाले कर दिया. जो तुमको ठीक लगे अच्छा लगे वाहा बनाओ . मे अनाता हो गया मा मे अनाथ हो गया जन्मो से मेरा मान मूज़े भटकता फिरता है फिर मेरे को इसी के हवाले कर दिया .के जहा तुमको ठीक लगे वाहा कुटिया बनओ. मेरे से कोई अपराध हो गया हैं. मूज़े आदेश नही दिया और मेरे मनके हवाले मूज़े कर दिया .ये जा के माता ने रामजी केओ कहा . फिर रामजी ने आके कहा की यहा आओ यहा देखो ये पूर्वा दिशा हैं ढलान के पास एधर उधर कुछ यहा वाहा करके ऐसे बनाओ करके आदेश दे दिया .की यह वास्तु शस्त्र के अनुसार बढ़ीया है. और आनंद दाई होगा .ऐसा करके लक्ष्मंका दिल रख लिया और लक्ष्मण भी सावधान हो गया मन मुख होने से .

नही के आज कल के लोगो की तरह अपनी मंकी गुरु और ईश्वर से करवाते है फिर आपस मे लड़ते है जघड़ते है एक दूसरा अपने अपने मान की करवने मे लगे रहते है . इस मे गुरु की होली हो जाती है गुरु मथानी की तरह फिरते रहेते है .धान्या है ऐसे गुरु को की ऐसा मथानी की तरह विलोटे हुए भी अपना सेवा कार्य को नही छोड़ते. और समाज के लए मकखन निकल ते रहेते हैं.

जो जागत सो पावत है

जो जागत सो पावत है पुस्तक से . . .
अमी सांगतो वेद सांगते |
"हम जो बोलते है वो वेद बोलते है"

ब्रह्मज्ञान हो जाने के बाद ब्रह्मज्ञानी शास्त्रो का आधार लेकर बोले या ऐसे ही बोले, उनकी वाणी वेदवाणी हो जाती है. उनके लिए हर जल गंगाजल हो जाता है. वह जिस भूमि पर पैर रखते है वो भूमि काशी बन जाती है. वह जिस वास्तु को स्पर्श करते है वो प्रशाद बन जाता है. वे जो अक्षर बोलते है वह मन्त्र बन जाता है. अगर वे महापुरुष मात्र "ढ़े... ढ़े... करो" वैसा कह दे और उसे श्रद्धा के साथ "ढ़े... ढ़े..." करने वाले को भी लाभ होता है.
अगर श्रद्धालु सोचे की ये "ढ़े... ढ़े..." कोई मन्त्र नही है परंतु ये महापुरुषने कहा है और मैं इसका पक्के विश्वाश के साथ इस मन्त्र का जप कुरुँगा - तो उसे लाभ होता ही है.
|| मंत्रमुलन गुरोर्वाक्यम ||
जिसके वचन मन्त्रके मूल बन जाते है उसको संसार की किसीभी वास्तु की ज़रूरत नही पड़ती. उनके लिए कोईभी वास्तु अप्राप्य नही.
..हरी ओम..

Saturday 13 June 2009

ISHAVAR PRAPTI NA MAN NA VIGHNO

ઇશ્વર પ્રાપ્તી માં મન ના દોષ કે થતા વિઘનો

૧ વ્યધી : કોઇ જાત નો રોગ કે દુખાવો જે મન ને વિચલિત કરે જેમ કે . પગ , માથુ વગેરે દુખવા જે જપ ધ્યાન માં વિઘન રુપ છે .
૨ પ્રમાદ : આળસ એ પોતે જ મોટુ વિઘન છે જે લોકો જપ ધ્યાન કરવા મા આળસ પ્રમાદ કરે તે ઇશ્વર પ્રાપ્તિ કરી શક્તા નથી.
૩ શંશય : ગુરુ , ગુરુ મંત્ર , ઇશ્ટ . કે ઇશ્વર મ શં્શય કરે તે ઇશ્વર પ્રાપ્તિ કરી શક્તા નથી.
૪ ભ્રાંતિ દર્શન : જે લોકો સવપ્ન કે બિજિ મન નિ ભ્રાં્તિ માં રાચે તે લોકો ઇશ્વર પ્રાપ્તિ કરી શક્તા નથી.
૫ ભૂત / ભવિશ્ય નું ચિં્તન : જે લોકો ભુત ભવિશ્ય નુ ચિંતન કર્યા કરે પેલા આમ હતુ હવે આમ છે પેલા આમ કર્યુ હોત તો આમ થાત ને ભવિશય નિ ચિનં્તા ઓ કરતા લોકો ઇશ્વર પ્રાપ્તિ કરી શક્તા નથી.
૬ સ્તબ્ધિ ભાવ : સ્તબ્ધ તા જેમ કે મન સુન્ન થય જાય વિચાર વિહિન તા આવિ જાય જપ કે ધ્યાન પન કરે નહિ અને બસ બેઠા રહે . કોય ને એમ લાગે કે સમધિ છે પન એવુ કય હોય નહિ તેવા ભાવ ને સ્તબ્ધિ ભાવ કહે છે .
૭ દૌ ર્મનસ્યતા : ભવિશ્ય બનાવવાનિ વાત મન મા લાવે વર્તમાન મા જપ ધ્યાન કરવા કરતા ભવિશય નિ ચિંતા કરનાર ઇશ્વર પ્રાપ્તિ કરી શક્તા નથી.
૮ અગ્નેજય્ત્વ : મન નિ એકગ્રતા ના હોવિ / એકાગ્રત ગુમાવિ દેવિ જેના વગર ધ્યાન શક્ય નથી.
૯ લયલીન તા : મન લય લીન થ ઇ જવુ

આ વિઘનો ઇશ્વર પ્રાપ્તિ મ સૌથી મોટા વિઘનો છે પરં્તુ આ વિઘનો આવે જ નહિ તે માટે પુજ્ય ગુરુદેવ આ સાધના બતાવે છે

એક ટક ગુરુ / ઇશ્વર ના ચિત્ર / છબી ને એક ટક જોવુ - સાથે સાથે મુલ બં્ધ અને જિભ તાળવા સાથે ઉપર રાખવી . અને શ્વાસો શ્વસ ને નિહાળવા થિ જનમ જનમ નિ વાસનાઓ નો નાશ થાય છે .અને મન નિ એકગ્રતા સધાય છે .

હરિ દ્વાર - ૧૦ મે - સવારે ૯ કલાકે